सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र की कहानी 

Raja Harishchandra Story In Hindi :

" कहानी जानने से पहले आपको यह जानना बहुत जरूरी है की सैनी जाति के लोग अपने आपको राजा हरिश्चंद्र के वंशज मानते हैं उनका कहना है कि सूर्य वंश में पैदा हुए राजा हरिश्चंद्र , उन्हीं के कुल के हैं और सैनी जाति में सूर्यवंशी नाम की खाप भी है ". 

यह कहानी उस वक्त की हैं जब देवता धरती पर अपने भक्तों की परीक्षा लेने के लिए आते थे. 

सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र स्वयं बिक गए, बेटा मरा हुआ पड़ा था और पत्नी के गला काटने की नौबत आने पर भी अपने धर्म को नहीं छोड़ा. 

इतनी विषम परिस्थितयों में भी राजा हरिश्चंद्र ने अपने धर्म की पालना की. राजा हरिश्चंद्र की कहानी अत्यंत करुणा से भरी हुई हैं. 

आज हम हरिश्चंद्र राजा की कथा को जानेंगे, लेकिन पहले ये जान लेते हैं की राजा हरिश्चंद्र कौन थे, और उनका इतिहास क्या हैं? 

 1.राजा हरिश्चंद्र कौन थे ?

सूर्यवंशी कुल के राजा हरिश्चंद्र अयोध्या नगरी के एक प्रतापी राजा थे. राजा हरिश्चंद्र का जीवनकाल सतयुग से सम्बन्धित था. राजा हरिश्चंद्र की पत्नी रानी तारामती थी और इनके पुत्र का नाम रोहित था. 

राजा हरिश्चंद्र अपने वचन पर अडिग रहने वाले और सत्य के धर्म पर चलने वाल थे. राजा हरिश्चंद्र अपने धर्म की मर्यादा को कायम रखने के लिए अपने स्वपन को भी सच मानते थे, और उसको पूरा करते. 

परोपकारी राजा हरिश्चंद्र नित्य दान करते थे. ऐसा कहा जाता हैं कि हरिश्चन्द्र सवेरे खाना खाने से पहले स्वर्ण, गौ, जल, भूमि, भोजन इत्यादि का दान किया करते थे. इसके पश्चात् भोजन को ग्रहण करते थे. 

राजा हरिश्चंद्र ने सत्य के मार्ग पर चलकर अपने महल और नगरी को त्याग दिया. समय की करवट ने उनसे उनकी पत्नी और बेटे को भी छिन लिया. चलिए जानते हैं कि राजा हरिश्चंद्र और तारामति की पूरी कहानी क्या हैं . 

2.राजा हरिश्चंद्र का स्वप्न : 

एक रात राजा हरिश्चंद्र को एक स्वप्न आया कि उन्होंने अपने महल को किसी ब्राह्मण को दान कर दिया था. 

जब सुबह आँख खुली तो वे स्वप्न की घटना को भूल गए थे. नित्य के काम निपटाकर जब हरिश्चंद्र अपने दरबार में गए तो उस दिन उनसे मिलने 1100 ब्राह्मणों के साथ महर्षि विश्वामित्र वहां आ गए. 

महर्षि विश्वामित्र के पैर धोकर राजा हरिश्चंद्र ने उनका स्वागत किया. राजा हरिश्चंद्र को अपने स्वप्न की घटना याद आ गयी. अपने स्वप्न की मर्यादा को रखने के लिए उन्होंने विश्वामित्र से अनुरोध किया कि – क्या आप मेरे महल को दान में स्वीकार करेंगे? 

महर्षि विश्वामित्र ने राजा हरिश्चन्द्र के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया. राजा हरिश्चन्द्र ने सभी ब्राह्मणों को भोजन करवाया, और दक्षिणा देने लगे. 

महर्षि विश्वामित्र ने उनको रोक लिया और कहा – अब इस सम्पति पर आपका कोइ अधिकार नहीं हैं, इनका आप पहले ही दान कर चुके हैं. इतना कहकर विश्वामित्र ने राजा हरिश्चंद्र, रानी तारामती और रोहित के आभूषण उतरवा दिए, और दक्षिणा की मांग करने लगे. 

राजा हरिश्चंद्र ने निवेदन किया कि मैं पहले आपको सब कुछ दे चूका हूँ, अब मेरे पास देने के लिए कुछ नहीं हैं. 

इस बात पर विश्वामित्र ने कहा कि आपने महल हमको समर्पित किया, वह दान हैं. हमने आपके यहाँ भोजन किया उसकी दक्षिणा अलग से चाहिए. 

हम यहाँ पर 1100 ब्राहमण हैं, कम से कम एक एक स्वर्ण मुद्राएँ तो दक्षिणा में देनी चाहिए. अन्यथा तुम पाप के भागीदारी बनोगे. 

राजा हरिश्चन्द्र संकट में पद गए और उन्होंने इसके लिये एक महीने का समय माँगा. फिर तीनों वहां से निकल गए. विश्वामित्र ने उन तीनो को अपनी नगरी से बाहर जाने को कहा, वे वहां अयोध्या नगरी में रहकर काम नहीं कर सकते थे. 

3.राजा हरिश्चन्द्र का पूरा परिवार बिक गया : 

विश्वामित्र द्वारा नगरी से बाहर भेज दिए जाने पर हरिश्चंद्र अपने परिवार के साथ शिव नगरी काशी पहुँच गए. काशी में पहुँचकर हरिश्चन्द्र ने काम ढूंढने की कोशिश की लेकिन उनको कोई काम नहीं मिला. 

विश्वामित्र का ऋण चुकाने का आखिरी दिन था और राजा हरिश्चंद्र गंगा घाट पर बैठे थे. राजा हरिश्चंद्र ने माँ गंगा से प्रार्थना की. अगर मैंने अपने जीवन में सत्य धर्म को निभाया हैं तो आज मेरे धर्म की रक्षा कर लेना. 

रानी तारामती वहां आई और कहने लगी कि आप मुझे बेच क्यों नहीं देते? 

क पति होते हुए मेरा धर्म हैं की तुम्हारी रक्षा करूँ, मैं तुम्हें बेचकर अपने पति धर्म को नष्ट नहीं कर सकता. 

रानी तारा ने अपने पति के धर्म की रक्षा के लिए खुद को बेचने का निश्चय किया और काशी के बाज़ार में जाकर खड़ी हो गई. 

रानी ने आवाज़ लगाई की कोई हैं जो मुझे खरीद सकता हैं. तब वहां एक पंडित वहां आ गये. पंडित ने कहा कि उसकी पत्नी बीमार रहती हैं. मेरी पूजा की तैयारी और मेरी पत्नी की सेवा कर सकती हो तो मैं तुम्हें खरीद सकता हूँ. 

रानी तारामती ने हाँ भर दी और अपनी किमत मांगी.पंडित ने 500 मुद्राएँ देने को कहा. रानी ने उन 500 स्वर्ण मुद्राओं को लिया और राजा हरिश्चंद्र के चरणों में समर्पित कर दी. 

रानी तारामती ने कहा कि उसने अपने पत्नी धर्म को पूरा किया है, कोई गलती हुई हो तो उसको क्षमा कर दे. अब वह दासी बन गयी हैं, इसलिए वह उनसे दूर जा रही हैं. 

इतने में वह पंडित तारामती को दर्दनाक स्थिति से बालों को पकड़कर घसीटता हुआ लेकर गया. हरिश्चन्द्र ने आपनी आखों को बंद कर लिया. वह रानी जिसके पास सैकड़ों दासियाँ रहती थी, जिसके लिए फूल उठाना भी भारी था, आज वह किसी और के घर चूल्हा फूकेंगी, कुएं से पानी भरेगी और दास बनकर कीसी की सेवा करेगी. 

रोहित ने अपनी माँ को दूर जाता देख वह उससे जाकर लिपट गया. पंडित ने उसको दूर जाने को कहा. तब राजा हरिश्चन्द्र ने कहा कि एक बच्चे को उसकी माँ से दूर मत कीजिये, आप इसको भी अपने साथ ले जाइये. 

पंडित में तारामती अभागन पर दया खाकर 100 स्वर्ण मुद्राएँ में उसको भी खरीद लिया. 

ऋषि विश्वामित्र के वचन के अनुसार अभी 500 स्वर्ण मुद्राएँ कम पड़ रही थी. राजा हरिश्चंद्र ने खुद को बेचने का निश्चय किया. 

काशी के बाज़ार में हरिश्चंद्र ने खुद की बोली लगाई, वहां आता हुआ एक चंडाल ने 500 स्वर्ण मुद्राओं में हरिश्चंद्र को भी खरीद लिया. 

1100 स्वर्ण मुद्राएँ पूरी होने पर विश्वामित्र के ऋण से उऋण होकर हरिश्चंद्र श्मशान घाट पहुँच गए. वहां हरिश्चंद्र ने लोगो को रोते हुए, चीखते हुए देखा, मुर्दे जल रहे थे. अब से हरिश्चन्द्र को यहीं पर श्मशान का पहरा देना था. 

वहां पर अंतिम क्रिया के लिए आने वाले लोगो से कर वसूलना और कफन के कपडे को हटाना हरिश्चंद्र का काम था. मुर्दे के साथ आने वाले चावल और पिंड दान में आने वाले पिंड को खाकर हरिश्चंद्र को पेट भरना पड़ता था. श्मशान में सोना और वहीँ पर रहना पड़ता था. 

इतनी विपदाओं के बाद भी राजा हरिश्चंद्र ने अपने धर्म को नहीं छोड़ा, और पूरी निष्टा से अपने धर्म को निभाने में लगे रहे. 

4.राजा हरिश्चंद्र के बेटे की मृत्यु: 

एक दिन पंडितजी ने रोहित को पुष्प लाने के लिए बगीचे में भेजा. वहां रोहित को काला नाग डस लेता हैं, और रोहित वहीँ गिर जाते हैं. रोहित को जहर चढ़ने लगता हैं. रोहोत को लगा की वह अब नहीं बचेंगे, तो जोर से चिलाकर कहा कि कोई हैं! मेरी माँ को कहना कि रोहित को सांप डस गया हैं. 

किसी ने रानी तारा को सुचना दी की उसके पुत्र को सांप ने डस लिया हैं. रानी ने सारे काम को छोड़कर वहां से निकलने की कोशिश की, लेकिन पंडित जी रानी को रोक लिया और सारे काम को निपटाने को कहा. 

रानी तारा का दुर्भाग्य देखिये, बेटा मरा हुआ पड़ा हैं और वह उसके पास भी नहीं जा सकती. जब पंडितजी सो गए, तब रानी दौड़कर बगीचे की तरफ गयी. 

रानी ने रोहित को देखकर रोने की कोशिश की लेकिन गाँव वालों के डर से वह खुलकर रो भी नहीं सकी. अपने बेटे के अंतिम संस्कार के लिए वहां कोई रोने वाला भी नहीं था. 

रानी तारा ने अपने साड़ी के पल्लु को फाड़ा और रोहित के शव को ढका. रानी ने रोहित को गोद में उठाया, और वहां से श्मसान की तरफ निकल गयी. श्मशान में प्रवेश करते ही रानी तारा फुट फुट कर रोने लगी. 

रानी की आवाज़ को सुनकर हरिश्चंद्र की नींद खुल गयी, और उठकर बोले कौन हैं? 

राजा हरिश्चंद्र के सर पर काला कपड़ा, और हाथ में एक लकड़ी थी. श्मशान की चिताओं की आग से हरिश्चंद्र बिलकुल काले और भद्र हो गए थे. रानी ने उनको नहीं पहचाना और कहा – मैं रानी तारा हूँ और यह मेरा बेटा जिसको सांप ने डस लिया हैं, यहाँ अंतिम संस्कार के लिए आई हूँ. 

राजा हरिश्चन्द्र ने जैसे ही ये नाम सुना उनको कुछ कुछ याद आने लगा. क्या तुम उसी दुर्भाग्यशाली हरिश्चंद्र की पत्नी हो, जो अपने पति और पिता होने के धर्म को नहीं निभा सका. 

रानी ने हरिश्चंद्र की तरफ देखा तो वह अपने दुःख पीड़ा को भूलकर उनके चरणों में गिर पड़ी और रोने लगी. राजा हरिश्चन्द्र और रानी तारा दोनों रोने लगे. रानी ने होश संभाला और कहा स्वामी हमारे पुत्र का अंतिम संस्कार करना हैं. 

राजा हरिश्चंद्र उठकर खड़े हुए, और बोले यहाँ अंतिम संस्कार करने के लिए तुम्हें पहले कर देना पड़ेगा. रानी ने कहा मेरे पास देने के लिए कुछ भी नहीं हैं. राजा हरिश्चंद्र ने रानी को कहा दिया कि बिना कर के वह यहाँ अंतिम संस्कार नहीं कर सकती, वह चाहे तो इसको गंगा में डाल सकती हैं. 

रानी ने अपनी साड़ी के पल्ले को फाड़कर हरिश्चंद्र को सोंपते हुए बोली इसके अलावा मेरे पास देने के लिए कुछ भी नहीं हैं. रानी का पीछा करते हुए गाँव वाले लोग वहां आ पहुंचे थे. लोगो ने रानी तारा पर इन्जाम लगाया की वह गाँव से चोरी करके यहाँ आई हैं. 

चंडाल ने हरिश्चन्द्र को तलवार थमाते हुए बोला कि इसकी गर्दन काट दो. तलवार को हाथ में लेकर राजा के हाथ रुक गए थे. रानी तारा ने कहा कि आप अपने हाथ रोकिये मत. ये आपके मालिक का आदेश हैं. 

पत्नी अगर चली गई तो वापस आ सकती हैं, बेटा भी आ सकता हैं. लेकिन अगर एक बार धर्म नष्ट हो गया तो वापस लौटकर नहीं आ सकता. इसलिए आप अपने हाथ रोकिये मत और मेरी गर्दन काटिए. 

समय की ऐसी करवट को देखकर पत्थर भी रो पड़े, तो फिर भगवान तो वहां आना ही था. भगवान वहां आये और उन्होंने राजा हरिश्चंद्र के हाथ को पकड़ लिया. 

राजा हरिश्चंद्र ने देखा कि भगवान स्वयं उनको रोकने के लिए आये हैं. राजा हरिश्चंद्र उनके चरणों में गिर पड़े, भगवान ने उनको उठाया और गले लगाया. 

भगवान ने कहा – बहुत हुई तुम्हारी परीक्षा, तुम परीक्षा में सफ़ल हुए, तुम एक सच्चे सत्यवादी राजा हो. 

ाजा हरिश्चंद्र ने भगवान् से कहा कि क्या आपको मेरे धर्म पर विश्वास नहीं था जो आपने इतना खेल रचाया? 

भगवान् ने कहा कि मुझे तुम्हारी सत्यता पर पूरा विश्वास था, इसलिए मैंने तुम्हे चुना, तुम सत्य की परीक्षा में पास हुए. तुम्हारे जैसा सत्यवादी राजा न तो आज तक हुआ हैं न आगे कभी होगा. 

ये दुनिया तुमको सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र के नाम से जानेगी. भगवान ने मरे हुए रोहित को जिन्दा कर दिया. सभी को सुन्दर शरीर प्रदान किया. महर्षि विश्वामित्र ने उनको महल वापस सौंप दिया. 

पुन: राजा हरिश्चंद्र और रानी तारामती उस महल में रहने लगे, और राजभोग भोगने लगे. ऐसा कहा गया हैं कि – धर्मो रक्षति रक्षित:  तुम धर्म की रक्षा करों, धर्म तुम्हारी रक्षा करेगा. 

राजा हरिश्चंद्र जैसा सत्यवादी बनना नामुमकिन हैं. पग पग पर राजा हरिश्चंद्र ने सत्य की परीक्षा दी. कुछ लोग कहते हैं कि राजा हरिश्चंद्र ने अपनी पत्नी को बेच दिया था. यह गलत हैं. राजा हरिश्चंद्र ने पूरी निष्टा से अपने पति धर्म को निभाया जब तक वे खुद नहीं बिक गए. 

हरिश्चंद्र ने खुद के बेटे के अंतिम संस्कार करने से मना कर दिया, और मालिक धर्म को निभाने के लिए अपने पत्नी पर तलवार चलाने वाले थे. इससे ज्यादा करुणा की स्थिति क्या हो सकती है । 

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