SAINI CASTE
The Origin and History of the Saini Caste , the word "Saini" can be traced back to the name of a valiant warrior Maharaja Shoor Saini. He was a courageous and fearless warrior, known for his heroic deeds . Maharaja Shoor Saini was the son of Emperor Shoor sen and played a significant role in governing the ancient city of Mathura.
Saini king: Samrat Shoorsen
सैनी उत्तर भारत की एक क्षत्रिय हिंदू जाति है , इस जाति के लोगों को शूरसैनी , पुरु शूरसैनी , भागीरथी सैनी और गोले सैनी के नाम से जाना जाता है । सैनी जाति के लोग अपने आप को राजा भगीरथ , भगवान श्री राम के साथ श्री कृष्ण एवं पुरूवास के वंशज मानते हैं। भारतीय राज्यों उत्तर प्रदेश, जम्मू और कश्मीर ,पंजाब,हरियाणा, उत्तराखंड , हिमाचल और दिल्ली मैं सैनी जाति के लोग मूल रूप से पाए जाते हैं ।
SAINI caste - History
भारत के अलग-अलग राज्यों में सैनी जाति के लोगों को अलग-अलग नाम से जाना जाता है :
जम्मू कश्मीर :- पुरु शूरसैनी
पंजाब और हरियाणा :- शूरसैनी
उत्तराखंड और हिमाचल :- भागीरथी सैनी
दिल्ली और उत्तर प्रदेश :- भागीरथी सैनी और गोले सैनी
सैनी जाति के लोग परंपरागत रूप से भूमि के मालिक (ज़मींदार) और किसान होते थे। आज सैनी समुदाय के लोग सरकारी नौकरी, शिक्षा, सेना, वकालत, प्रशासनिक सेवा, व्यवसाय, प्रबंधन, इंजीनियरिंग, चिकित्सा, अनुसंधान, टेक्नोलॉजी, स्वास्थ्य सेवा, राजनीति आदि में अपने सेवाऐ दे रहे है।
सम्राट शूरसैन महाराजा दशरथ के पोते और भगवान श्री राम के छोटे भाई शत्रुघ्न के पुत्र के रूप में पैदा हुए थे. शत्रुघ्न ने युद्ध में यमुना तट पर स्थित मधुवन को जीत लिया था और उसके स्थान पर मथुरापुरी नगर बसाया था, जो वर्तमान में मथुरा है. इन्हीं सम्राट शूरसैन के यहां सैनी जाति के महाराजा शूरसैनी का जन्म हुआ था। यहीं से सैनी जाति के वंश की शुरुआत हुई , जो वर्तमान में पूरे भारत वर्ष में फैली हुई है।
सैनी शब्द की उत्पत्ति “महाराजा शूर सैनी” के नाम से हुई है. वह एक पराक्रमी शूर वीर योद्धा थे. महाराजा शूर सैनी " सम्राट शूरसेन " के पुत्र थे । कभी वर्तमान के मथुरा नगर पर सम्राट शूरसेन का शासन हुआ करता था. मथुरा प्राचीन भारत के 16 महाजनपदों में से एक था. शूर शब्द का शाब्दिक अर्थ वीर बहादुर या योद्धा होता है ।
महाराजा शूर सैनी का जन्म महाभारत काल में हुआ था. वह एक शूरवीर क्षत्रिय थे. प्राचीन ऐतिहासिक अभिलेखों के अनुसार मथुरा " शूरसेन महाजनपद " की राजधानी थी. सम्राट शूरसैन वासुदेव के पिता और भगवान कृष्ण के दादा थे. इस पौराणिक मान्यता के अनुसार यही वह वंश है जिसमें श्री कृष्ण का जन्म हुआ था और महाराजा शूर सैनी के वंशज ही सैनी कहलाए ।
सम्राट शूरसेन हिंदू पौराणिक कथाओं में वर्णित मथुरा का एक शूरसैनी शासक थे । उनका विवाह मारिशा नाम की एक नागा (या नागिन) महिला से हुआ था। वह उनके सभी बच्चों को जन्म देती थी और भीम के लिए वासुकी के वरदान का कारण थी। उन्हें वह राजा कहा जाता है जिनके नाम पर शूरसैनी साम्राज्य के सैनी संप्रदाय का नाम रखा गया था।
सम्राट शूरसेन के 15 बच्चे थे, शूरसेन समुद्रविजय (स्वयं नेमिनाथ के पिता ), वासुदेव (स्वयं वासुदेव - कृष्ण के पिता ) , महाराजा शूर सैनी और कुंती ( कर्ण और पांडवों की मां ) के पिता थे । उनका महाभारत और पुराणों दोनों में बड़े पैमाने पर उल्लेख किया गया है।
महाराजा शूर सैनी के इतिहास यह साबित करता है कि उनका संबंध चंद्रवंशीयों और सूर्यवंशीयों से था जिसके कारण आज भी सैनी समाज के लोगों में दो राय देखने को मिलती हैं , सैनी समाज के कई लोग महाराजा शूर सैनी को चंद्रवंशी मानते हैं तो कई लोग उन्हें सूर्यवंशी मानते हैं , जबकि सैनी जाति के कई लोग यह मानते हैं की महाराजा शूर सैनी जी का राज्य काल सूर्यवंश और चंद्रवंश के माध्यम काल में रहा है इसलिए सैनी जाति में एक बड़ा वर्ग अपने आपको उनसे जोड़कर केवल " शूरसैनी " मानता है ।
Saini vansh itihaas
सम्राट शूरसेन ( सैनी समाज के स्थापक )।
शूरसेन महाजनपद
Bharat 16 mahajanapadas , c. 500 BCE
शूरसेन महाजनपद प्राचीन भारत के 16 महाजनपदों में से एक था। इसकी राजधानी मथुरा थी | यह कुरु महाजनपद के दक्षिण में स्थित था। बौद्ध ग्रंथों के अनुसार अवंतिपुत्र यहाँ का राजा था। पुराणों में मथुरा के राजवंश को शूरसैनीवंश कहा गया है। अपने ज्ञान, बुद्धि और "वैभव" के कारण यह नगर अत्यन्त प्रसिद्ध था।
बौद्ध ग्रंथों में साफ उल्लेख किया गया है कि शूरसेन महाजनपद के अपनी मुद्राएं हुआ करती थी , अपनी भाषा हुआ करती थी और अपनी खुद की सेना हुआ करती थी । सम्राट शूरसेन की सेना का नाम " शूरसेना " था , बौद्ध ग्रंथों के अनुसार इस सेना ने महाभारत के युद्ध में बड़ी भूमिका निभाई थी और इसी सेना को भगवान श्री कृष्ण जी की सेना भी कहा गया था , जो कि उन्हें उनके दादा " सम्राट शूरसेन " से विरासत में मिली थी ।
Shoorsaini coin: Saini coin
महाराजा शूर सैनी जी के राज काल में सैनी समाज की अपनी मुद्राएं हुआ करती थी ( Saurasena coin , 400-300 BCE ) .
स्थित
ShoorSena mahajanpad , Saini Kingdom
शूरसेन देश प्राचीन काल में उत्तरप्रदेश और राजस्थान में जनपद था। राजस्थान उत्तरप्रदेश भारत वर्ष के पश्चिम भाग में अवस्थित है जो प्राचीन काल से विख्यात रहा है। तब इस प्रदेश में कई इकाईयाँ सम्मिलित थी जो अलग-अलग नाम से सम्बोधित की जाती थी। उदाहरण के लिए जयपुर राज्य का उत्तरी भाग मध्यदेश का हिस्सा था तो दक्षिणी भाग सपालदक्ष कहलाता था। अलवर राज्य का उत्तरी भाग कुरुदेश का हिस्सा था तो भरतपुर, धौलपुर, करौली राज्य शूरसेन देश में सम्मिलित थे।
इस प्रदेश का नाम संभवत: मधुरापुरी (मथुरा) के शासक, लवणासुर के वधोपरान्त, शत्रुघ्न ने अपने पुत्र सम्राट शूरसेन के नाम पर रखा था। सम्राट शूरसेन ने पुरानी मथुरा के स्थान पर नई नगरी बसाई थी जिसका वर्णन वाल्मीकि रामायण के उत्तरकांड में है। महाभारत में शूरसेन-जनपद पर सहदेव की विजय का उल्लेख है। कालिदास ने रघुवंश में शूरसेनाधिपति सुषेण का वर्णन किया है। इसकी राजधानी मथुरा का उल्लेख कालिदास ने इसके आगे रघुवंश में किया है। श्रीमद् भागवत में सम्राट शूरसेन का उल्लेख है जिसका राज्य शूरसेन-प्रदेश में कहा गया है। विष्णु पुराण में शूरसेन के निवासियों को ही संभवत: शूर कहा गया है और इनका आभीरों के साथ उल्लेख है ।
वाल्मीकि रामायण
- सम्राट शूरसेन ने पुरानी मथुरा के स्थान पर नई नगरी बसाई थी जिसका वर्णन वाल्मीकि रामायण के उत्तरकांड में है।
- शूरसेन-जनपदीयों का नाम भी वाल्मीकि रामायण में आया है- 'तत्र म्लेच्छान्पुलिंदांश्च सूरसेनांस्तथैव च, प्रस्थलान् भरतांश्चैय कुरूंश्च यह मद्रकै:'।
वाल्मीकि रामायण में मथुरा को शूरसेना कहा गया है:-'भविष्यति पुरी रम्या शूरसेना न संशय: ,महाभारत में शूरसेन-जनपद पर सहदेव की विजय का उल्लेख है- 'स शूरसेनान् कार्त्स्न्येन पूर्वमेवाजयत् प्रभु:, मत्स्यराजंच कौरव्यो वशेचक्रे बलाद् बली'।
-कालिदास ने रघुवंश में शूरसेनाधिपति सुषेण का वर्णन किया है- 'सा शूरसेनाधिपतिं सुषेणमुद्दिश्य लोकान्तरगीतकीर्तिम्, आचारशुद्धोभयवंशदीपं शुद्धान्तरक्ष्या जगदे कुमारी'।
-इसकी राजधानी मथुरा का उल्लेख कालिदास ने इसके आगे रघुवंश में किया है।
-श्रीमद् भागवत में सम्राट शूरसेन का उल्लेख है जिसका राज्य शूरसेन-प्रदेश में कहा गया है।
-मथुरा उसकी राजधानी थी- 'शूरसेना पुरीम्, माथुरान्छूरसेनांश्च विषयान् बुभुजे पुरा, राजधानी तत: साभूत सर्वयादभूभुजाम्, मथुरा भगवान् यत्र नित्यं संनिहितों हरि:'।
-विष्णु पुराण में शूरसेन के निवासियों को ही संभवत: शूर कहा गया है और इनका आभीरों के साथ उल्लेख है- 'तथापरान्ता: सौराष्ट्रा: शूराभीरास्तथार्बुदा:'।
शौरसेनी भाषा
शौरसेनी नामक प्राकृत मध्यकाल में उत्तरी भारत की एक प्रमुख भाषा थी। यह नाटकों में प्रयुक्त होती थी (वस्तुतः संस्कृत नाटकों में, विशिष्ट प्रसंगों में)। बाद में इससे हिंदी-भाषा-समूह व पंजाबी विकसित हुए। दिगंबर जैन परंपरा के सभी जैनाचार्यों ने अपने महाकाव्य शौरसेनी में ही लिखे जो उनके आदृत महाकाव्य हैं।
शौरसेनी उस प्राकृत भाषा का नाम है जो प्राचीन काल में मध्यप्रदेश में प्रचलित थी और जिसका केंद्र शूरसेन अर्थात् मथुरा और उसके आसपास का प्रदेश था। सामान्यत: उन समस्त लोकभाषाओं का नाम प्राकृत था जो मध्यकाल (ई. पू. ६०० से ई. सन् १००० तक) में समस्त उत्तर भारत में प्रचलित हुईं। मूलत: प्रदेशभेद से ही वर्णोच्चारण, व्याकरण तथा शैली की दृष्टि से प्राकृत के अनेक भेद थे, जिनमें से प्रधान थे - पूर्व देश की मागधी एवं अर्ध मागधी प्राकृत, पश्चिमोत्तर प्रदेश की पैशाची प्राकृत तथा मध्यप्रदेश की शौरसेनी प्राकृत। मौर्य सम्राट् अशोक से लेकर अलभ्य प्राचीनतम लेखों तथा साहित्य में इन्हीं प्राकृतों और विशेषत: शौरसेनी का ही प्रयोग पाया जाता है। भरत नाट्यशास्त्र में विधान है कि नाटक में शौरसेनी प्राकृत भाषा का प्रयोग किया जाए अथवा प्रयोक्ताओं के इच्छानुसार अन्य देशभाषाओं का भी (शौरसेनं समाश्रत्य भाषा कार्या तु नाटके, अथवा छंदत: कार्या देशभाषाप्रयोक्तृभि - नाट्यशास्त्र १८,३४)। प्राचीनतम नाटक अश्वघोषकृत हैं (प्रथम शताब्दी ई.) उनके जो खंडावशेष उपलब्ध हुए हैं उनमें मुख्यत: शौरसेनी तथा कुछ अंशों में मागधी और अर्धमागधी का प्रयोग पाया जाता है।
भास के नाटकों में भी मुख्यत: शौरसेनी का ही प्रयोग पाया जाता है। पश्चात्कालीन नाटकों की प्रवृत्ति गद्य में शौरसेनी और पद्य में महाराष्ट्री की ओर पाई जाती है। आधुनिक विद्वानों का मत है कि शौरसेनी प्राकृत से ही कालांतर में भाषाविकास के क्रमानुसार उन विशेषताओं की उत्पत्ति हुई जो महाराष्ट्री प्राकृत के लक्षण माने जाते हैं। वररुचि, हेमचंद्र आदि वैयाकरणों ने अपने-अपने प्राकृत व्याकरणों में पहले विस्तार से प्राकृत सामान्य के लक्षण बतलाए हैं और तत्पश्चात् शौरसेनी आदि प्रकृतों के विशेष लक्षण निर्दिष्ट किए हैं। इनमें शौरसेनी प्राकृत के मुख्य लक्षण दो स्वरों के बीच में आनेवाले त् के स्थान पर द् तथा थ् के स्थान पर ध्। जैसे अतीत > अदीद, कथं > कधं ; इसी प्रकार ही क्रियापदों में भवति > भोदि, होदि ; भूत्वा > भोदूण, होदूण। भाषाविज्ञान के अनुसार ईसा की दूसरी शती के लगभग शब्दों के मध्य में आनेवाले त् तथा द् एव क् ग् आदि वर्णों का भी लोप होने लगा और यही महाराष्ट्री प्राकृत की विशेषता मानी गई। प्राकृत का उपलभ्य साहित्य रचना की दृष्टि से इस काल से परवर्ती ही है। अतएव उसमें शौरसेनी का उक्त शुद्ध रूप न मिलकर महाराष्ट्री मिश्रित रूप प्राप्त होता है और इसी कारण पिशल आदि विद्वानों ने उसे उक्त प्रवृत्तियों की बहुलतानुसार जैन शौरसेनी या जैन महाराष्ट्री नाम दिया है।
जैन शौरसेनी साहित्य दिंगबर जैन परंपरा का पाया जाता है। प्रमुख रचनाएँ ये हैं - सबसे प्राचीन पुष्पदंत एव भूतवलिकृत षट्खंडागम तथा गुणधरकृत कषाय प्राभृत नामक सूत्रग्रंथ हैं (समय लगभग द्वितीय शती ई.)। वीरसेन तथा जिनसेनकृत इनकी विशाल टीकाएँ भी शौरसेनी प्राकृत में लिखी गई है (९वीं शती ई.)। ये सब रचनाएँ गद्यात्मक हैं। पद्य में सबसे प्राचीन रचनाएँ कुंदकुंदाचार्यकृत हैं (अनुमानत: तीसरी शती ई.)। उनके बारह तेरह ग्रंथ प्रकाश में आ चुके हैं, जिनके नाम हैं - समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, नियमसार, रयणसार, बारस अणुवेक्खा तथा दर्शन, बोध पाहुडादि अष्ट पाहुड। इन ग्रंथों में मुख्यतया जैन दर्शन, अध्यात्म एवं आचार का प्रतिपादन किया गया है। मुनि आचार संबंधी मुख्य रचनाएँ हैं- शिवार्य कृत भगवती आराधना और वट्टकेर कृत मूलाचार। अनुप्रेक्षा अर्थात् अनित्य, अशरण आदि बारह भावनाएँ भावशुद्धि के लिए जैन मुनियों के विशेष चिंतन और अभ्यास के विषय हैं। इन भावनाओं का संक्षेप में प्रतिपादन तो कुंदकुंदाचार्य ने अपनी 'बारस अणुवेक्खा' नामक रचना में किया है, उन्हीं का विस्तार से भले प्रकार वर्णन कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा में पाया जाता है, जिसके कर्ता का नाम स्वामी कार्त्तिकेय है। (लगभग चौथी पाँचवीं शती ई.)।
(१) यति वृषभाचार्यकृत तिलोयपण्णत्ति (९वीं शती ई. से पूर्व) में जैन मान्यतानुसार त्रैलाक्य का विस्तार से वर्णन किया गया है, तथा पद्मनंदीकृत जंबूदीवपण्णत्ति में जंबूद्वीप का।
(२) स्याद्वाद और नय जैन न्यायशास्त्र का प्राण है। इसका प्रतिपादन शौरसेनी प्राकृत में देवसेनकृत लघु और बृहत् नयचक्र नामक रचनाओं में पाया जाता है (१०वीं शती ई.)।
जैन कर्म सिद्धांत का प्रतिपादन करनेवाला शौरसेनी प्राकृत ग्रन्थ है- नेमिचंद्रसिद्धांत चक्रवर्ती कृत गोम्मटसार, जिसकी रचना गंगनरेश मारसिंह के राज्यकाल में उनके उन्हीं महामंत्री चामुंडराय की प्रेरणा से हुई थी, जिन्होंने मैसूर प्रदेश के श्रवणबेलगोला नगर में उस सुप्रसिद्ध विशाल बाहुबलि की मूर्ति का उद्घाटन कराया था (११वीं शती ई.)। उपर्युक्त समस्त रचनाएँ प्राकृत-गाथा-निबद्ध हैं।
जैन साहित्य के अतिरक्त शौरसेनी प्राकृत का प्रयोग राजशेखरकृत कर्पूरमंजरी, रद्रदासकृत चंद्रलेखा, घनश्यामकृत आनंदसुंदरी नामक सट्टकों में भी पाया जाता है। यद्यपि कर्पूरमंजरी के प्रथम विद्वान् संपादक डा. स्टेनकोनो ने दर्जनों प्राचीन प्रतियों के प्रमाण के विरुद्ध अपनी एक धारणा के बल पर गद्य में शौरसेनी और पद्य में महाराष्ट्री प्राकृत की प्रवृत्तियाँ लाने का प्रयास किया, तथापि डा. मनमोहन घोष ने इस प्रवृत्ति को अनुचित बतलाकर समस्त सट्टक में ही शौरसेनी की प्रवृत्ति प्रमाणित की है। शेष सट्टकों में भी गद्य और पद्य में प्राय: एक सी ही प्राकृत भाषा दृष्टिगोचर होती है, जो बहुलता से शौरसेनी के लक्षणों को लिए हुए है।
धर्म
सनातन धर्म :-
हालांकि सैनी जाति की एक बड़ी संख्या सनातन धर्म को मानती है , उनकी धार्मिक प्रथाओं को वैदिक और सिक्ख परंपराओं के विस्तृत परिधि में वर्णित किया जा सकता है।
सैनी जाति की 99% आबादी हिंदू है और वह हिंदू रीति-रिवाजों को मानते है और हिंदू त्योहार को बड़े धूमधाम से बनाते है , सैनी जाति का संबंध भगवान श्री राम और भगवान श्री कृष्ण से होने के कारण इस जाति के लोग धर्म मैं बहुत आस्था रखते हैं , सैनी जाति के लोग हिंदू रीति रिवाज और परंपराओं को पौराणिक काल से मानते आए हैं ।
सैनी सनातन धर्म की वह जाती है , जिसने कभी इस्लाम को नहीं अपनाया और सैनी जाति के लोग इस बात पर गर्व करते हैं ।
धार्मिक कार्यक्रमों में सैनी जाति के लोग बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते हैं , यह आप कुरुक्षेत्र और हरिद्वार में देख सकते हो जहां सैनी जाति की बड़ी आबादी पाई जाती है ।
सिख धर्म :-
पंद्रहवीं सदी में सिख धर्म के उदय के साथ कई सैनियों ने सिख धर्म को अपना लिया। इसलिए, आज पंजाब में सिक्ख सैनियों की एक बड़ी आबादी है। हिन्दू सैनी और सिख सैनियों के बीच की सीमा रेखा काफी धुंधली है क्योंकि वे आसानी से आपस में अंतर-विवाह करते हैं। एक बड़े परिवार के भीतर हिंदुओं और सिखों, दोनों को पाया जा सकता है।
1901 के पश्चात सिख पहचान की ओर जनसांख्यिकीय बदलाव
- 1881 की जनगणना में केवल 10% सैनियों को सिखों के रूप में निर्वाचित किया गया था, लेकिन 1931 की जनगणना में सिख सैनियों की संख्या 57% से अधिक पहुंच गई। यह गौर किया जाना चाहिए कि ऐसा ही जनसांख्यिकीय बदलाव पंजाब के अन्य ग्रामीण समुदायों में पाया गया है जैसे कि जाट, महंत, कम्बोह आदि। सिक्ख धर्म की ओर 1901-पश्चात के जनसांख्यिकीय बदलाव के लिए जिन कारणों को आम तौर पर जिम्मेदार ठहराया जाता है उनकी व्याख्या निम्नलिखित है ।
- ब्रिटिश द्वारा सेना में भर्ती के लिए सिखों को हिंदुओं और मुसलमानों की तुलना में अधिक पसंद किया जाता था। ये सभी ग्रामीण समुदाय जीवन यापन के लिए कृषि के अलावा सेना की नौकरियों पर निर्भर करते थे। नतीजतन, इन समुदायों से पंजाबी हिंदुओं की बड़ी संख्या खुद को सिख के रूप में बदलने लगी ताकि सेना की भर्ती में अधिमान्य उपचार प्राप्त हो। क्योंकि सिख और पंजाबी हिन्दुओं के रिवाज, विश्वास और ऐतिहासिक दृष्टिकोण ज्यादातर समान थे या निकट रूप से संबंधित थे, इस परिवर्तन ने किसी भी सामाजिक चुनौती को उत्पन्न नहीं किया ।
- सिख धर्म के अन्दर 20वीं शताब्दी के आरम्भ में सुधार आंदोलनों ने विवाह प्रथाओं को सरलीकृत किया जिससे फसल खराब हो जाने के अलावा ग्रामीण ऋणग्रस्तता का एक प्रमुख कारक समाप्त होने लगा। इस कारण से खेती की पृष्ठभूमि वाले कई ग्रामीण हिन्दू भी इस व्यापक समस्या की एक प्रतिक्रिया स्वरूप सिक्ख धर्म की ओर आकर्षित होने लगे। 1900 का पंजाब भूमि विभाजन अधिनियम को भी औपनिवेशिक सरकार द्वारा इसी उद्देश्य से बनाया गया था ताकि उधारदाताओं द्वारा जो आम तौर पर बनिया और खत्री पृष्ठभूमि होते थे इन ग्रामीण समुदायों की ज़मीन के समायोजन को रोका जा सके, क्योंकि यह समुदाय भारतीय सेना की रीढ़ की हड्डी थी ।
विवाह
जैसा कि आप जानते हैं कि सैनी जाति के लोग हिंदू और सिख धर्म में आस्था रखते हैं और दोनों धर्मों में पाए जाते हैं इसलिए सैनी जाति के लोग हिंदू और सिख रीति-रिवाजों से शादी विवाह करते हैं ।
विवाह के नियम , ऐसी स्थिति में विवाह नहीं हो सकता अगर लड़के की ओर से चार में से एक भी गोत्र लड़की के पक्ष के चार गोत्र से मिलता हो। दोनों पक्षों से ये चार गोत्र होते हैं ।
पैतृक दादा , पैतृक दादी , नाना और नानी ।
दोनों पक्षों में उपरोक्त किसी भी गोत्र के एक ना होने पर भी अगर दोनों ही परिवारों का गांव एक हो, इस स्थिति में भी लड़के और लड़की को एक दूसरे को पारस्परिक रूप से भाई-बहन समझा जाता है और विवाह नही होता है ।
सैनी सम्राट , राजा और भगवान
Saini king: Maharaja Sagar
राजा सागर
सैनी जाति के लोग राजा सागर को मूल पूर्वज मानते हैं , राजा सागर के वंशजों को सागर या गोले कहा जाता है , गोले सैनी जाति में एक गोत्र और एक खाप है ।
Saini king: Raja Bhagirath
राजा भगीरथ
सैनी जाति का एक बड़ी आबादी भागीरथी सैनी के नाम से जानी जाती है यह लोग भागीरथी गोत्र के होते हैं जो कि सैनी जाति का एक गोत्र है और खाप है ।
Saini King: Raja Harishchandra
राजा हरिश्चंद्र
सैनी जाति के लोग अपने आपको राजा हरिश्चंद्र के वंशज मानते हैं उनका कहना है कि सूर्य वंश में पैदा हुए राजा हरिश्चंद्र , उन्हीं के कुल के हैं और सैनी जाति में सूर्यवंशी नाम की खाप भी है ।
Saini King: lord Shri Ram
भगवान श्री राम
सैनी जाति के लोग श्री राम को अपना पूर्वज मानते हैं , क्योंकि सम्राट शूरसेन के ताऊ थे भगवान श्री राम । सैनी जाति के लोग अपने आपको इसी कुल से जोड़कर देखते हैं ।
Saini king: samrat sursen
सम्राट शूरसेन
सम्राट शूरसैन महाराजा दशरथ के पोते और भगवान श्री राम के छोटे भाई शत्रुघ्न के पुत्र के रूप में पैदा हुए थे. सम्राट शूरसैन वासुदेव के पिता और भगवान कृष्ण के दादा थे ।
Saini King: lord Krishna
भगवान श्री कृष्ण
सैनी जाति के लोग श्री कृष्ण को भी अपने पूर्वज के रूप में देखते हैं और उनका कहना है कि भगवान श्री कृष्ण जी के दादाजी का नाम "सम्राट शूरसेन" था और वह सैनी जाति के थे ।
Saini King: Maharaja Shoor Saini
महाराजा शूर सैनी
सैनी शब्द की उत्पत्ति “महाराजा शूर सैनी” के नाम से हुई है. वह एक पराक्रमी शूर वीर योद्धा थे. महाराजा शूर सैनी " सम्राट शूरसेन " के पुत्र थे और आपको बता दें कि सैनी जाति में "शूरसैनी" नाम की खाप भी है ।
Saini King: Maharaja Porus Saini
महाराजा पोरस सैनी
सैनी जाति के लोग महाराजा पोरस सैनी को अपनी ही जाति के राजा के रूप में देखते हैं क्योंकि इतिहासकार कहते हैं कि महाराजा पोरस एक "शूरसैनी " राजा थे , इसलिए वो उन्हें अपनी जाति का बताते हैं , महाभारत युद्ध के बाद सैनी जाति के योद्धा आज के अफगानिस्तान के क्षेत्र में जा बसे थे , और वहां उनके कई राजा भी थे जिनमें से एक महाराजा पोरस सैनी थे ।
सैनी जाति के विवाद , दूसरी जातियों के साथ :
Saini samaj , Uttar Pradesh
सैनी समाज के सभी लोग जानते हैं कि उनके पूर्वज सैनी जाति का नाम का इस्तेमाल नहीं किया करते थे वह अपने नाम के पीछे सैनी नहीं लगाते थे , अधिकतर सैनी समाज के लोग अपने नाम के पीछे " सिंह " लगाया करते थे , क्योंकि सिंह क्षत्रियों की पहचान हुआ करती थी और सैनी एक क्षत्रिय जाति है ।
राजा महाराजाओं के काल में सैनी जाति के लोग सभी जात बिरादरीओं के साथ मिलकर रहा करते थे जिसके कारण सब उन्हें अपना ही मना करते थे ,पर बदलते वक्त के साथ सैनी जाति के लोगों ने अपने नाम के पीछे " सैनी " लगाने चालू कर दिया है , आज कई जातियां सैनी समाज को अपने ही समाज का हिस्सा बताती हैं जैसे कि माली , राजपूत ,जाट और यादव आदि ।
सैनी जाति के कुछ लोग अपने आपको राजपूत और यादव बताते हैं इसकी पहली वजह है कि सैनी जाति के कुछ लोग कहते हैं कि वह राजाओं के पूत हैं और जो राजाओं के पूत होते हैं वह राजपूत होते हैं और दूसरी वजह, इनका मानना है कि सैनी जाति राजपूत और यादव जाति के बाद वजूद में आई है , पर ऐसा नहीं है हम आपको बता दें कि सैनी जाति का वजूद राजपूत और यादव जाति के आने से पहले का है बताया जाता है हिंदू ग्रंथों में भी इसका वर्णन है , अगर सैनी जाति राजपूत और यादवों के बाद वजूद में आए होते तो सैनी जाति में भागीरथी कुल के सैनी नहीं होते आज सैनी जाति में देखा जाता है कि राजा भगीरथ के वंशज मौजूद हैं जो अपने आप को भागीरथी सैनी कहते हैं, आपको बता दें कि सैनी जाति के लोग ऐसे लोगों को जो अपने आप को राजपूत और यादव बताते हैं उन्हें मूर्ख मानते हैं और कहते हैं कि यह अपने आपको अगर राजपूत या यादव मानते हैं तो फिर उनके सरनेम का इस्तेमाल क्यों नहीं करते , फिर सैनी जाति को क्यों बदनाम कर रहे हैं और सैनी जाति के नाम का इस्तेमाल क्यों करते हैं सैनी जाति के लोग इन्हें इनके नाम के पीछे राजपूत और यादव लिखने के लिए कहते हैं।
आपको बता दें कि भारत की राजनीति में कई जात के नेता कई जातियों को एक साथ जोड़ कर एक समूह बनाते हैं और यह आज से नहीं बहुत पहले से चलता आया है ।
पहले राजस्थान मैं सैनी माली नाम का एक समूह बनाया गया ताकि राजनीतिक तौर पर दोनों समाजों को मजबूत किया जाए , जबकि सैनी और माली हिंदू धर्म की दो अलग-अलग जातियां हैं, अच्छी बात यह है कि इससे दोनों समाज राजस्थान में मजबूत भी हुए और सैनी जाति ने तरक्की भी करी है, राजस्थान में इन दोनों जातियों ने मिलकर अपने समूह का मुख्यमंत्री ( श्री अशोक गहलोत ) कई बार बनाया है , पर इसका नुकसान सैनी जाति के उन लोगों को हुआ जो राजस्थान से बाहर रहते हैं और दूसरी जातियां उन्हें "माली" कहकर बुलाने लगी और इससे माली समाज को सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ कि पंजाब , उत्तराखंड ,उत्तर प्रदेश और हरियाणा में रहने वाले सैनी जाति के लोग राजस्थान के माली समाज से नफरत करने लगे , आज भी पंजाब और हरियाणा के किसी कस्बे में " माली महात्मा ज्योतिबा फुले " जी की मूर्ति लगाई जाती है तो सैनी जाति के कई युवा इसका विरोध करते हैं , वह अपने आप को " शूरसैनी " मानते हैं और महाराजा शूरसैनी जी की मूर्ति लगाने की ही बात करते हैं ।
जब राजस्थान की माली जाति ने हरियाणा और पंजाब में एक मुहिम चलाई जिसके तहत वह माली महात्मा ज्योतिबा फुले की मूर्ति हर सैनी कस्बे में लगवाना चाहते थे , पर यह मालीकरण की राजनीति उनकी कामयाब नहीं हो पाई , जब माली महात्मा ज्योतिबा फुले की मूर्ति हरियाणा के कई कस्बों में लगाई गई तो उन कस्बों के जाट और ब्राह्मण समाज के लोगों ने सैनी जाति के लोगों से कहा कि तुम माली जाति के महापुरुषों माली महात्मा ज्योतिबा फुले की मूर्ति लगा रहे हो तो , तुम सैनी कैसे हुए ?
आज भी सैनी जाति को कई समूह में शामिल करने की पूरी कोशिश की जाती है पर इसके कुछ फायदे होंगे तो कुछ नुकसान भी होंगे , जोकि सैनी जाति के लोगों को उठाने पड़ेंगे ।
आज भी यह राजनीति उत्तर प्रदेश में " सूर्यवंशी क्षत्रीय जाति " के नाम से चलाई जा रही है जिसमें सैनी , मौर्य , कुशवाहा और शाक्य जाति शामिल है , इस समूह का फायदा अभी तक यह देखा गया है कि इस समूह ने एकजुट होकर उत्तर प्रदेश में अपना उप मुख्यमंत्री बना लिया है उनका नाम है केशव प्रसाद मौर्य , माली जाति के तरह ही मौर्य जाति के लोग भी सैनी जाति के लोगों को मौर्यवंशी कहने लगे हैं जबकि इन दोनों जातियों का इतिहास बिल्कुल अलग है, राजनीतिक तौर पर यह समूह इन जातियों को मजबूत कर रहा है पर आने वाले वक्त में यह देखना है कि यह समूह इन जातियों को कितना नुकसान या फायदा करेगा ।
उत्तर प्रदेश के सैनी नेताओं और सैनी संगठन के द्वारा चलाई जा रही ( सूर्यवंशी क्षत्रिय जाति ) समूह की राजनीति अभी तक सैनी समाज को बड़ा नुकसान दे रही है , सैनी जाति के लोगों का कहना है कि इस समूह के लोग अपने आप को मौर्यवंशी और बुद्ध धर्म से जुड़ा हुआ मानते हैं और उनका कहना है कि इस समूह के लोग मौर्य , सैनी ,कुशवाहा शाक्य को एक जाति के रूप में देखते हैं जिसका फायदा धर्म परिवर्तन करवाने वाले उठा रहे हैं , उत्तर प्रदेश सैनी समाज के लोगों का कहना है कि उनके समाज के गरीब लोगों को मूर्ख बनाकर धर्म परिवर्तन करवाया जा रहा है , इस समूह का उदाहरण देकर उन्हें बौद्ध धर्म अपनाने के लिए कहा जा रहा है ।
ऐसी ही राजनीति हरियाणा में देख सकते हैं हरियाणा के पूर्व सांसद राजकुमार सैनी एक ऐसा समूह बनाने की कोशिश कर रहे हैं जिसमें सैनी , दलित और अन्य पिछड़ी जातियां शामिल हो , पर अभी तक ऐसा हो नहीं पाया है क्योंकि सैनी जाति के लोग जानते हैं कि अगर उन्होंने ऐसे समूह में अपने आप को शामिल किया तो आने वाले वक्त में दलित अपने आपको सैनी कहने लगेंगे , आगे देखना यह है कि उनकी राजनीति और उनके उद्देश पूरा होगा या नहीं और यह समूह की राजनीति कितना फायदेमंद होगी सैनी समाज के लिए और कितना नुकसान देगी समाज को ।
ऐसे समूह हर समाज के नेता बनाते हैं , और हर समाज को इसका फायदा और नुकसान भुगतना पड़ता है , ऐसी राजनीति नेता अपनी जात बिरादरी के वोट बैंक बढ़ाने के लिए करते हैं , भारत की राजनीति में जिसका वोट बैंक जितना बड़ा होता है उसकी बात उतनी ही सुनी जाती है और उसको उतनी ही तवज्जो दी जाती है ।
सैनी और माली जाति में क्या अंतर है ?
सैनी और माली जाति हिंदू धर्म की दो अलग-अलग जातियां हैं , सैनी जाति हिंदू क्षत्रिय जाति है और माली जाति फूल कृषि से जुड़ी हुई जाती है , सैनी और माली जाति में बहुत अंतर है :-
Saini caste
सैनी जाति : सैनी उत्तर भारत की एक हिंदू क्षत्रिय जाति है , इस जाति के लोगों को शूरसैनी और भागीरथी सैनी के नाम से जाना जाता है । सैनी जाति के लोग अपने आप को राजा भगीरथ , भगवान श्री राम के साथ श्री कृष्ण एवं पुरूवास के वंशज मानते हैं। भारतीय राज्यों उत्तर प्रदेश, जम्मू और कश्मीर ,पंजाब,हरियाणा, उत्तराखंड , हिमाचल और दिल्ली मैं सैनी जाति के लोग मूल रूप से पाए जाते हैं ।
Mali caste
Mali Mahatma Jyotiba fule
माली जाति : माली हिंदुओं के बीच पाए जाने वाला एक व्यावसायिक जाति है, जो परंपरागत रूप से माली और बागबान के रूप में काम करते हैं और यह बगीचे में काम करने वाले लोग होते हैं । उन्होंने अपने काम के कारण खुद को फूल माली भी कहा है। माली पूर्वी भारत, गुजरात ,राजस्थान , नेपाल के तेराई क्षेत्र और महाराष्ट्र में पाए जाते हैं। इरावती करवे, एक मानवशास्त्री, ने दिखाया कि मराठा जाति कुनबी से उत्पन्न हुई है जो सिर्फ खुद को "मराठा" कहने लगे। वह कहते हैं कि मराठा, कुनबी और माली महाराष्ट्र की तीन मुख्य खेती करने वाली समुदायें हैं - फर्क इतना है कि मराठा और कुनबी "सूखी खेती" करते थे जबकि माली पूरे साल फूल , हल्दी और सब्जी की खेती करते थे । वह माली महात्मा ज्योतिबा फुले की विचारधारा पर चलते हैं |
माली जाति में कुल 12 उपजातियां हैं-फूल माली, हल्दी माली, काछी माली, जीरे माली, मेवाड़ा माली, कजोरिया माली, वन माली, रामी माली, ढीमर माली और भादरिया माली आदि ।
जब राजस्थान की माली जाति ने धोखे से " सैनी जाति " का नाम अपनाया 1937 , जानिए पूरा इतिहास :-
Mali community adopted Saini surname
माली जाति का एक बड़ा समूह 1930 से 1937 तक एक बहुत बड़ा संघर्ष कर रहा था , वह चाहते थे कि उन्हें " माली राजपूत क्षत्रिय " का दर्जा मिले , जिसके लिए वह केस लड़ रहे थे और आपको बता दें कि वह 1937 में इस केस को जीत भी गए थे ।
जब जोधपुर की माली जाति इस केस को जीत गई तो वह अपने आप को माली राजपूत , सैनिक क्षत्रीय और सैनी माली कहने लगे ।
सैनी जाति के लोगों का कहना है की माली जाति के लोगों ने धोखाधड़ी से सैनी जाति का नाम इस्तेमाल करना शुरू कर दिया , उन्हें ब्रिटिश सरकार ने " सैनिक क्षत्रीय " नाम का इस्तेमाल करने की इजाजत दी थी पर उन्होंने सैनिक को बदलकर सैनी कर दिया और इसका प्रचार पूरे राजस्थान में किया , जिसके वजह से पूरे राजस्थान के माली जाति के लोग सैनी जाति के नाम का इस्तेमाल करने लगे ।
राजस्थान राज्य के माली समुदाय ने 1930 - 1937 के दशक के दौरान सैनी जाति का नाम अपनाया था जब भारत ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के अधीन था ।
राजस्थान में जितनी माली जाति की आबादी थी उतनी ही सैनी जाति की आबादी भी थी , माली जाति के लोगों ने सैनी जाति के लोगों को मूर्ख बनाया और उन्हें उनका गलत इतिहास बताया ताकि वह अपने आपको माली समझे ।
माली जाति ने सैनी जाति का नाम तो अपना लिया पर गौरवशाली इतिहास नहीं अपना पाया , आज भी महाराष्ट्र और राजस्थान के माली जाति के लोग केवल माली महात्मा ज्योतिबा फुले को ही मानते हैं ।
सैनी जाति के लोग माली जाति के लोगों से इस बात से नाराज रहते हैं कि वह शूरसैनी राजाओं को नहीं मानते , महाराष्ट्र और राजस्थान में एक भी महाराजा शूर सैनी की मूर्ति नहीं है , सैनी जाति के लोगों का कहना है कि माली जाति के लोग चाहते हैं कि पूरे भारत के सैनी माली बन जाएं पर वह सैनी जाति का इतिहास नहीं अपनाना चाहते ।
जब अंग्रेजों ने माली जाति के लोगों को " सैनिक क्षत्रीय " के नाम इस्तेमाल करने की अनुमति दे दी तो माली जाति के लोगों ने सैनी सरनेम का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया , जिसका प्रभाव आज के सैनी जाति पर साफ दिखता है और इससे सैनी जाति के गौरवशाली इतिहास पर दाग लग गया |
सैनी जाति के लोग कहते हैं कि सैनी बिरादरी एक क्षत्रिय जाती है जिसमें कई राजाओं ने जन्म लिया और माली जाति परंपरागत रूप से माली और फूल बेचने का काम करती थी जोकि राजस्थान , मध्य प्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र में उन्हें फूल बेचते देखा जा सकता है और उन्हें फूल माली भी कहा जाता है ।
सैनी जाति के लोग महाराजा शूर सैनी और राजा भगीरथ के वंशज हैं जो कि हरियाणा , पंजाब , उत्तराखंड , उत्तर प्रदेश, हिमाचल और जम्मू-कश्मीर में शूरसैनीवंश के कहे जाते हैं , जबकि माली परंपरागत रूप से माली का ही काम करते थे ।
सैनी जाति के लोग यह तर्क देते हैं कि जब उनके राजा महाराजा थे और वह "शूरसैनी" के नाम से जाने जाते थे , तो वह माली समाज से कैसे हो सकते हैं माली तो बगीचे में काम करने वाला व्यक्ति होता है ।
पंजाब , हरियाणा , उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड मैं हटाई जा रही है माली महात्मा ज्योतिबा फुले की मूर्ति :
Maharaja Shoor Saini Shakti sthal, Kaithal, Haryana.
पंजाब , उत्तराखंड और हरियाणा के किसी कस्बे में अगर " माली महात्मा ज्योतिबा फुले " की मूर्ति लगाई जाती है तो इसका विरोध सैनी समाज के कई लोग करते हैं , उनका मानना यह है कि उन्हें जबरदस्ती माली जाति का बनाया जा रहा है जबकि वह सैनी जाति से हैं , सरकार और सैनी संगठन के द्वारा लगाई जा रही माली फुले की मूर्ति को हटा रहे हैं सैनी जाति के लोग ।
पंजाब , उत्तराखंड और हरियाणा में सैनी समाज के कई लोग एक मुहिम भी चला रहे हैं जिसमें वह सैनी आबादी वाले कस्बों में महाराजा शूर सैनी की मूर्ति लगवा रहे हैं और " माली महात्मा ज्योतिबा फुले " की मूर्ति हटवा रहे हैं ।
हरियाणा के फरीदाबाद मैं भी इस मुहिम का असर दिख रहा है , फरीदाबाद के सैनी जाति के लोग शहीद सेनापति गुलाब सिंह सैनी की मूर्ति अपने कस्बों में लगवा रहे हैं ।
उत्तर प्रदेश में भी ऐसी ही मुहिम देखी जा रही है कि उत्तर प्रदेश के भागीरथी और गोले कुल के सैनी अपने कस्बों में राजा भगीरथ और राजा सागर की मूर्तियां स्थापित कर रहे हैं और " माली महात्मा ज्योतिबा फुले " की मूर्ति हटवा रहे हैं ।
जब से माली जाति ने सैनी जाति का नाम अपनाया है इन दोनों जातियों में नफरत काफी बढ़ गई है ।
Shoorsaini Community
Haryana Saini samaj
Saini community Punjab
Sikh Saini community
Sikh Saini
Saini Kingdom
Saini
Shoorsaini community, Haryana
Uttrakhand Saini samaj
Bhagirathi and Gole community
Bhagirathi Saini samaj
Puru ShoorSaini community
King Porus ( Puru Shoorsaini ).
Jammu Saini community ( j and k Saini samaj ).
Jammu Kashmir Saini community boycott OBC reservation.
Jammu Kashmir Saini communitycommunity
Kshatriya Yuva Saini Sabha ( Puru Shoorsaini Community NGO ) calls on Div Com, refuses OBC status :
A delegation of All J&K Kshatriya Yuva Saini Sabha, led by its President Suksham Singh today called on Divisional Commissioner Jammu, Ramesh Kumar and submitted him a memorandum to decline the grant of OBC status to the community.
resident of All J&K Saini Sabha, Pritam Singh Saini also accompanied the delegation,Suksham Singh apprised the Divisional Commissioner that the Government Order S.O 537, dated 19th October, 2022 brought Saini community under the ambit of OSC/OBC reservation without any proper surveys, terming it as a clear violation of all the set guidelines and parameters laid down by the Mandal Commission Report and the judgment in Indra Sawhney (Indra Sawhney Vs Union of India) 1992 Supp (3) SCC 217.
“We, Saini community respectfully decline this decision to include our Saini (Kshatriya) community of J&K into this reserved category,” he said, adding “Our Saini community of J&K UT doesn’t satisfy even a single indicator out of eleven indicators of backwardness specified by Mandal Commission Report. This is clear violation of Constitution as well as it hurts the sentiments of our Saini community.”
सैनी जयंती
सैनी जाति के लोग बड़े धूमधाम से बनाते हैं अपने महापुरुषों की जयंती , जानिए तिथि :
राजा सागर :- 26 जुलाई को इनकी जयंती मनाई जाती है ।
राजा भगीरथ :- 18 जनवरी को इनकी जयंती मनाई जाती है ।
राजा हरिश्चंद्र :- 27 जनवरी को इनकी जयंती मनाई जाती है ।
भगवान श्री राम :- रामनवमी को इनकी जयंती मनाई जाती हैं ।
सम्राट शूरसेन :- 17 अगस्त को इनकी जयंती मनाई जाती है ।
भगवान श्री कृष्ण :- कृष्ण जन्माष्टमी को इनकी जयंती मनाई जाती है ।
महाराजा शूर सैनी :- 20 दिसंबर को इनकी जयंती मनाई जाती है ।
महाराजा पोरस सैनी :- 22 अप्रैल को इनकी जयंती मनाई जाती है ।
शहीद सेनापति गुलाब सिंह सैनी :- 30 जनवरी और 23 मार्च को इनकी जयंती मनाई जाती है ।
सूबेदार जोगेंद्र सिंह सैनी : - 26 सितंबर को इनकी जयंती मनाई जाती है ।
कैप्टन गुरबचन सिंह सैनी :- 29 नवंबर को इनकी जयंती मनाई जाती है ।
सैनी रेजिमेंट
Saini regiment
सैनी जाति के लोगों का कहना है कि वह एक हिंदू क्षत्रिय जाति से आते हैं तो उनकी भी भारतीय सेना में रेजीमेंट होनी चाहिए , सैनी जाति के लोग बताते हैं कि पहले उनकी सैनी रेजिमेंट आर्मी में थी और इस रेजीमेंट को वर्ल्ड वार १ के बाद ब्रिटिश सरकार द्वारा बंद कर दिया गया था , जिसे बहाल करवाने की मांग सैनी जाति के लोग कई बार कर चुके हैं ।
महाजनपद और महाभारत काल में सैनी जाति की अपनी सेना हुआ करती थी जिसका नाम शूरसेना था , यह सेना सम्राट शूरसेन की सेना थी , जो कि बाद में भगवान श्री कृष्ण जी की सेना के रूम मैं भी पहचानी गई , भगवान श्री कृष्ण जी को यही सेना उनके दादा सम्राट शूरसेन से विरासत में मिली थी और सम्राट शूरसेन एक शूरसैनी राजा थे जो कि सैनी जाति के राजा के रूप में पहचाने गए ।
Saini regiment recruitment during World war 1.
Saini population in India
भारत के वह जिले जिन जिलों में सैनी जाति की सबसे ज्यादा आबादी पाई जाती है , वह है : होशियारपुर , फिरोजपुर , कुरुक्षेत्र , हरिद्वार, सहारनपुर , बिजनौर , बुलंदशहर , मुजफ्फरनगर , सोनीपत , रोहतक , पानीपत , हिसार , फरीदाबाद आदि
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